प्रश्न अभ्यास
(पाठ्यपुस्तक से)
प्र.1. ग्रामीण विकास का क्या अर्थ है? ग्रामीण विकास से जुड़े मुख्य प्रश्नों को स्पष्ट करें।
उत्तर : ग्रामीण विकास एक व्यापक शब्द है जो एक ग्राम के चहुँमुखी विकास में बाधा उत्पन्न करने वाले सभी क्षेत्रों पर केंद्रित है। ग्रामीण विकास से जुड़े मुख्य प्रश्न इस प्रकार हैं
(क) आधारिक संरचना का विकास- यह ग्रामीण विकास में एक प्राथमिक प्रश्न है। इसमें निम्नलिखित शामिल हैं
- साख सुविधाओं की व्यवस्था;
- ग्रामीण बाजारों का विकास तथा इनका शहरी बाजारों के साथ एकीकरण;
- परिवहन एवं संचार के साधनों, बैंकिंग सुविधाओं, बीमा सुविधाओं आदि का विकास;
- उत्पादन एवं घरेलू इकाइयों के लिए बिजली की उपलब्धता;
- सिंचाई के स्थायी साधनों का विकास;
- कृषि अनुसंधान और विकास के लिए सुविधाएँ।
(ख) मानव पूँजी निर्माण- भारत में ग्रामीण क्षेत्र शिशु मृत्यु दर, निरक्षरता, निर्धनता, बेरोजगारी, जीवन प्रत्याशा में कमी, पोषक स्तर में कमी में शहरी क्षेत्रों से आगे हैं। यह स्पष्ट करता है कि ग्रामीण क्षेत्र मानव पूँजी निर्माण के लिए कराह रहे हैं।
(ग) निर्धनता उन्मूलन- व्यक्तिगत स्तर पर ग्रामीण क्षेत्रों के प्रत्येक इलाके के उत्पादक संसाधनों की पहचान की जाए तथा गैर-कृषि गतिविधि के विकास के लिए उन्हें विकसित किया जाए। मौसमी और प्रच्छन्न बेरोजगारी का उन्मूलन करना आवश्यक है जो ग्रामीण निर्धनता का प्रमुख कारण है।
(घ) भू-सुधार- भू-सुधार भूमि को ज्यादा समानतापूर्वक पुनर्वितरित करने और उपरोक्त उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए आवश्यक है।
प्र.2. ग्रामीण विकास में साख के महत्त्व पर चर्चा करें।
उत्तर : कृषि में फसल की बुआई और आय प्राप्ति के बीच एक लंबा अंतराल है, किसानों को ऋण की बहुत जरूरत होती है। किसानों को बीज, उर्वरक, औजारों की प्रारंभिक निवेश के लिए तथा अन्य पारिवारिक व्ययों के लिए मुख्यतः जब वे मौसमी बेरोजगार होते हैं, धन की आवश्यकता होती है। अत: साख एक मुख्य कारक है जो ग्रामीण विकास में योगदान देता है। यदि संस्थागत स्रोत उपलब्ध नहीं होंगे तो किसान गैर-संस्थागत स्रोतों से ऋण लेगा जिससे ऋण की तथा इस तरह उत्पादन की लागत बढ़ेगी।
प्र.3. गरीबों की ऋण आवश्यकताएँ पूरी करने में अतिलघु साख व्यवस्था की भूमिका की व्याख्या करें।
उत्तर : स्वयं सहायता समूह (एस.एच.जी.) जिन्हें अतिलघु साख कार्यक्रम भी कहा जाता है, ग्रामीण ऋण के संदर्भ में एक उभरती हुई घटना है।
(क) स्वयं सहायता समूह ग्रामीण परिवारों में बचत को बढ़ावा देते हैं। एस.एच.जी. छोटी बचतों को जुटाकर अपने अलग-अलग सदस्यों को ऋण के रूप में देने की पेशकश करते हैं।
(ख) स्वयं सहायता समूहों द्वारा ऋण औपचारिक ऋण की तुलना में बेहतर है क्योंकि यह बिना कुछ गिरवी रखे ब्याज की एक सामान्य दर पर दिया जाता है।
(ग) मार्च 2003 तक 7 लाख से ज्यादा स्वयं सहायता समूह कार्यशील थे।
(घ) यह लोकप्रिय हो रहे हैं क्योंकि इनसे निर्धनों को बिना कुछ गिरवी रखे कम ब्याज दरों पर न्यूनतम कानूनी औपचारिकताओं के साथ ऋण मिल जाता है।
प्र.4, सरकार द्वारा ग्रामीण बाजारों के विकास के लिए किए गए प्रयासों की व्याख्या करें।
उत्तर : सरकार द्वारा ग्रामीण बाज़ारों के विकास के लिए निम्नलिखित प्रयास किए गए।
(क) बाजारों का विनियमने- पहला कदम व्यवस्थित एवं पारदर्शी विपणन की दशाओं का निर्माण करने के लिए बाजार का नियमन था। कुल मिलाकर इसे नीति का किसानों के साथ-साथ उपभोक्ताओं को भी लाभ हुआ।
(ख) भौतिक आधारिक संरचना का प्रावधान- दूसरा उपाय सड़कों, रेलमार्गों, भंडारण गृहों, गोदामों, शीत भंडारण गृहों, प्रसंस्करण इकाइयों आदि भौतिक बुनियादी सुविधाओं का प्रावधान है।
(ग) सहकारी विपणन- सरकार के तीसरे उपाय में सरकारी विपणन द्वारा किसानों को अपने उत्पादन का उचित मूल्य सुलभ कराना है। गुजरात तथा देश के अन्य कई भागों में दुग्ध उत्पादक सहकारी समितियों ने ग्रामीण अंचलों के सामाजिक तथा आर्थिक परिदृश्य का कायाकल्प कर दिया।
(घ) नीतिगत साधन- चौथे उपाय के अंतर्गत नितिगत साधन हैं जैसे
- कृषि उत्पादों के लिए न्यूनतम समर्थन कीमत का निर्धारण करना;
- भारतीय खाद्य निगम द्वारा गेहूँ और चावल के सुरक्षित भंडार का रख-रखाव और
- सार्वजनिक वितरण प्रणाली द्वारा खाद्यान्नों और चीनी का वितरण।
इन साधनों का ध्येय क्रमशः किसानों को उपज के उचित दाम दिलाना तथा गरीबों को सहायिकी युक्त कीमत पर वस्तुएँ । उपलब्ध कराना रहा है।
प्र.5. आजीविका को धारणीय बनाने के लिए कृषि का विविधीकरण क्यों आवश्यक है?
उत्तर : आजीविका को धारणीय बनाने के लिए कृषि का विविधीकरण आवश्यक है क्योंकि
(क) कृषि एक मौसमी गतिविधि है, अतः इसे अन्य गतिविधियों द्वारा पूरक बनाने की आवश्यकता है।
(ख) अजीविका के लिए पूर्णत: खेती पर निर्भर करने में बहुत खतरा है।
(ग) यह ग्रामीण लोगों को अनुपूरक लाभकारी रोजगार उपलब्ध कराने के लिए एवं आय के उच्च स्तर द्वारा निर्धनता उन्मूलने में सक्षम बनाता है।
प्र.6. भारत के ग्रामीण विकास में ग्रामीण बैंकिंग व्यवस्था की भूमिका का आलोचनात्मक मूल्यांकन करें।
उत्तर : बैंकिंग प्रणाली के तेजी से विस्तार का ग्रामीण कृषि एवं गैर कृषि उत्पादन, आय और रोजगार पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा है। हरित क्रांति के बाद, ऋण सुविधाओं ने किसानों को अपनी उत्पादन आवश्यकता को पूरा करने के लिए ऋण की विविधताओं का लाभ उठाने में मदद की। अनाज के सुरक्षित भंडारों के चलते अकाल अतीत की घटना बन चुके हैं।
तब भी ग्रामीण बैंकिंग द्वारा निम्नलिखित समस्याओं का सामना किया जा रहा है
(क) अपर्याप्तता- देश में उपलब्ध ग्रामीण साख की मात्रा उसकी माँग की तुलना में आज भी बेहद अपर्याप्त है।
(ख) संस्थागत स्रोतों की अपर्याप्त कवरेज- संस्थागत ऋण व्यवस्था असफल रही है क्योंकि यह पूरे देश के ग्रामीण किसानों को कवर करने में विफल रहा है।
(ग) अपर्याप्त राशि की मंजूरी- किसानों के लिए मंजूर ऋण की राशि भी अपर्याप्त है।
(घ) सीमांत या निर्धन किसानों की ओर कम ध्यान- जरूरतमंद किसानों की ऋण आवश्यकताओं पर कम ध्यान दिया गया है।
(ङ) बढ़ती देय राशि- कृषि ऋण में अतिदेय राशि की समस्या चिंता का एक विषय बना हुआ है। लंबे समय से कृषि ऋण का भुगतान न कर पाने वालों की दरों में वृद्धि हुई है। 50% से अधिक उधारकर्ताओं को जानबूझकर ऋण का भुगतान न करने वालों की श्रेणी में रखा गया है। यह बैंकिंग प्रणाली के सुचारू संचालन के लिए एक खतरा है और इसे नियंत्रित किया जाना आवश्यक है।
सुधारों के बाद से कृषि बैंकिंग क्षेत्र के विस्तार एवं वृद्धि ने एक पिछला स्थान ले लिया है। वाणिज्यिक बैंकों के अतिरिक्त अन्य औपचारिक संस्थान जमा संग्रहण की एक संस्कृति, ज़रूरतमदों के लिए ऋण एवं प्रभावी ऋण वसूली करने में विफल रहे हैं।
परिस्थिति में सुधार करने के लिए
(क) बैकों का अपना दृष्टिकोण केवल उधारदाताओं से बदलकर बैंकिंग संबंधों के निर्माण के रूप में बनाया जाना चाहिए।
(ख) किसानों को बचत और वित्तीय संसाधनों के कुशल उपयोग की आदत विकसित करने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
प्र.7. कृषि विपणन से आपका क्या अभिप्राय है?
उत्तर : कृषि विपणन एक प्रक्रिया है जिसमें देशभर में उत्पादित कृषि उत्पादों का संग्रह, भंडारण, प्रसंस्करण, परिवहन, बैंकिंग, वर्गीकरण और वितरण शामिल है। भारतीय कृषि बाजार असक्षम और कुछ हद तक आदिमकाल के हैं। न्यूनतम समर्थन कीमत गेहूँ और चावल के पक्षों में पक्षपाती है। व्यवसायीकृत भारतीय कृषि ने संसाधन पूर्ण क्षेत्रों को अधिक लाभान्वित किया। पिछड़े क्षेत्रों में विपणन संरचनाएँ काफी हद तक व्यावसायिक रूप से कार्य नहीं करते।
प्र.8. कृषि विपणन प्रक्रिया की कुछ बाधाएँ बताइए।
उत्तर : कृषि विपणन प्रक्रिया की कुछ बाधाएँ इस प्रकार हैं
(क) कृषि बाजार पर अभी भी निजी क्षेत्र का प्रभुत्व है। कुल उत्पादन का केवल 10% सहकारी समितियों को मिलता है। शेष निजी क्षेत्र को जाता है।
(ख) उचित भंडारण सुविधाएँ ग्रामीण क्षेत्रों में आज तक भी उपलब्ध नहीं है। ग्रामीण उत्पादन का 10% उत्पादन हर वर्ष भंडारण सुविधाओं के कारण बर्बाद हो जाता है।
(ग) आज भी बारहमासी सड़कों की कमी है। ऐसी परिस्थितियों में जब भंडारण सुविधाएँ नहीं हैं कि वे सही बाजार स्थितियों का इंतज़ार कर सकें, सड़कें इतनी सही नहीं हैं कि वे अपना उत्पादन विनियमित बाजारों में जाकर बेच सकें तो वे अपनी फसलें कम कीमतों पर बेचने के लिए मजबूर हैं।
(घ) भारतीय किसानों में बाजार की जानकारी एवं सूचना की कमी है। बाजार की मौजूदा कीमतों की जानकारी के अभाव में वे अपना उत्पादन कम कीमतों पर बेचने को मजबूर हैं।
प्र.9, कृषि विपणन की कुछ उपलब्ध वैकल्पिक माध्यमों के उदाहरण सहित चर्चा करें।
उत्तर : कृषि विपणन के लिए उपलब्ध कुछ वैकल्पिक माध्यम इस प्रकार हैं
(क) प्रत्यक्ष बाज़ार- कुछ ऐसे बाज़ार शुरू किए गए हैं जहाँ किसान स्वयं ही उपभोक्ता को अपना उत्पादन बेच सके और मध्यस्थों का अंत हो। इसके उदाहरण हैं-पंजाब, राजस्थान, हरियाणा में अपनी मंडी, पूणे की हाडपसार मंडी आदि।
(ख) बहुराष्ट्रीय कंपनियों और बड़ी भारतीय कंपनियों के साथ गठबंधन- कुछ किसानों ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों तथा फूड चेन के साथ गठबंधन किया है और वे एक पूर्व निर्धारित कीमत पर इन कंपनियों को सीधा अपना उत्पादन बेचने के लिए तैयार हो जाते हैं। परंतु उनसे एक गुणवत्ता फसल उत्पादन वांछनीय होता है।
- बहुत बार ये कंपनियाँ कृषि आदान और कभी-कभी फसल बीमा भी उपलब्ध कराते हैं।
- वे एक पूर्व निर्धारित कीमत पर उत्पादन खरीदने का भी आश्वासन देते हैं।
- इससे किसानों को जोखिम कम हो जाता है और उनका उत्पादन बढ़ जाता है।
प्र.10. ‘स्वर्णिम क्रांति’ और ‘हरित क्रांति’ में अंतर स्पष्ट करें।
उत्तर : स्वर्णिम क्रांति- हरित क्रांति अक्टूबर 1965 में कृषि उत्पादन की वृद्धि के लिए शुरू की गई एक रणनीति थी जिसके अंतर्गत उच्च पैदावार वाली किस्म (HYV) के बीज, उर्वरक, सिंचाई सुविधाएँ, कीटनाशक आदि उपलब्ध कराए गए।
हरित क्रांति- 1991-2003 की अवधि को स्वर्णिम क्रांति कहा जाता है क्योंकि इस अवधि में बागवानी में नियोजित निवेश अत्यधिक उत्पादक बन गया और यह क्षेत्र एक स्थायी आजीविका के विकल्प के रूप में उभरा।।
प्र.11. क्या सरकार द्वारा कृषि विपणन सुधार के लिए अपनाए गए विभिन्न उपाय पर्याप्त हैं? व्याख्या कीजिए।
उत्तर : नहीं, मुझे नहीं लगता कि सरकार द्वारा कृषि विपणन के लिए अपनाए गए विभिन्न उपाय पर्याप्त हैं।
(क) भारतीय कृषि बाज़ार अकुशल हैं तथा बहुत हद तक आदिमकाल के हैं।
(ख) न्यूनतम समर्थन कीमत नीति गेहूँ एवं चावल की फसलों के पक्ष में पक्षपाती हैं।
(ग) व्यावसायिक भारतीय कृषि ने संसाधन पूर्ण क्षेत्रों को अधिक लाभान्वित किया है।
(घ) पिछड़े क्षेत्रों में विपणन संरचनाएँ काफी हद तक व्यावसायिक रूप से कार्य नहीं करते।
प्र.12. ग्रामीण विविधीकरण में गैर-कृषि रोजगार का महत्त्व बताइए।
उत्तर : विविधीकरण का तात्पर्य तो फसल विविधीकरण से है या उत्पादन गतिविधियों के विविधीकरण से, जिसका अर्थ है कृषि गतिविधियों से गैर-कृषि गतिविधियों में स्थानांतरित होना। इसमें निम्नलिखित गतिविधियाँ शामिल है:
(क) कृषि प्रसंस्करण गतिविधियाँ, खाद्य प्रसंस्करण गतिविधियाँ, चमड़ा उद्योग, हस्तशिल्प, पर्यटन, मिट्टी के बर्तन बनाना, हथकरघा आदि।
(ख) पशुपालन- पशुधन आय की स्थिरता एवं खाद्य एवं पोषकता सुरक्षा को बढ़ा देता है तथा 70 मिलियन सीमांत एवं छोटे किसानों को वैकल्पिक रोज़गार का साधन प्रदान करता है। आपरेशन फ्लड’ के द्वारा 1960-2002 के बीच भारत का दुग्ध उत्पादन चार गुणा बढ़ा।
(ग) मत्स्य पालन- कुल मछली उत्पादन का सकल घरेलू उत्पाद में 1.4% का योगदान हैं मत्स्य क्षेत्र निम्न आय स्तर, श्रम की गतिशीलता के निम्न स्तर एवं निरक्षरता के उच्च स्तरों से ग्रस्त है। निर्यात बाजार का 60% तथा 40% आंतरिक मत्स्य व्यापार का संचालन महिलाओं के हाथ में है।
(घ) उद्यान विज्ञान- 1991 से 2003 की अवधि को स्वर्णिम क्रांति कहा जाता है। इसी दौरान बागवानी में सुनियोजित निवेश बहुत ही उत्पादक सिद्ध हुआ और इस क्षेत्रक ने एक धारणीय वैकल्पिक रोजगार का रूप धारण किया। बागवानी में लगे कितने ही कृषकों की आर्थिक दशा में बहुत सुधार हुआ है। ये उद्योग अब अनेक वंचित वर्गों के लिए आजीविका को बेहतर बनाने में सहायक सिद्ध हुए हैं।
प्र.13. विविधीकरण के स्रोत के रूप में पशुपालन, मत्स्यपालन और बागवानी के महत्त्व पर टिप्पणी करें।
उत्तर : पशुपालन का महत्त्वः भारत में कृषक समुदाय प्रायः मिश्रित कृषि पशुधन व्यवस्था का अनुसरण करता है। इसमें गाय-भैंस और मुर्गी-बत्तख बहुतायत में पाई जाने वाली प्रजातियाँ हैं।
(क) मवेशियों के पालन से परिवार की आय में अधिक स्थिरता आती है। साथ ही खाद्य सुरक्षा, परिवहन, ईंधन, पोषण आदि की व्यवस्था भी परिवार की अन्य खाद्य उत्पादक (कृषक) गतिविधियों में अवरोध के बिना ही प्राप्त हो जाती है।
(ख) आज पशुपालन क्षेत्रक देश के 7 करोड़ छोटे एवं सीमांत किसानों और भूमिहीन श्रमिकों को आजीविका कमाने के वैकल्पिक साधन सुलभ करा रहे हैं।
(ग) महिलाओं की भी एक बड़ी संख्या इस क्षेत्र से रोज़गार पाती हैं।
मत्स्य पालन का महत्त्वः आजकल देश के समस्त मत्स्य उत्पादन का 49% अंर्तवर्ती देशों और 51% महासागरीय क्षेत्रों से प्राप्त हो रहा है।
(क) यह मत्स्य उत्पादन सकल घरेलू उत्पाद का 1.4% है।
(ख) सागरीय उत्पादकों में प्रमुख राज्य केरल, गुजरात, महाराष्ट्र और तमिलनाडु हैं।।
(ग) यद्यपि महिलाएँ मछलियाँ पकड़ने के काम में नहीं लगी हैं पर 60% निर्यात और 40% आंतरिक मत्स्य व्यापार को संचालन इन्हीं के हाथों में है।
उद्यान विज्ञान ( बागवानी) का महत्त्वः 1991-2003 के बीच अवधि को ‘स्र्वाणमि क्रांति कहा जाता है।
(क) भारत आम, केला, नारियल, काजू जैसे फलों और अनेक मसालों के उत्पादन में आज विश्व का अग्रणी देश माना जाता है।
(ख) फल-सब्जियों के उत्पादन में भारत का विश्व में दूसरा स्थान है।
(ग) बागवानी में लगे बहुत से कृषकों की दशा में बहुत सुधार हुआ है। पुष्पारोपण, पौधशाला की देखभाल, संकर बीजों का उत्पादन, ऊतक-संवर्धन, फल-फूलों का संवर्धन और खाद्य प्रसंस्करण ग्रामीण महिलाओं के लिए अब अधिक आय वाले रोज़गार बन गए हैं।
प्र.14, ‘सूचना प्रौद्योगिकी, धारणीय विकास तथा खाद्य सुरक्षा की प्राप्ति में बहुत ही महत्त्वपूर्ण योगदान करती है।’ टिप्पणी करें।
उत्तर : सूचना प्रौद्योगिकी ने भारतीय अर्थव्यवस्था के अनेक क्षेत्रकों में क्रांतिकारी परिवर्तन कर दिए हैं। 21वीं शताब्दी में देश में खाद्य सुरक्षा और धारणीय विकास में सूचना प्रौद्योगिकी निर्णायक योगदान दे सकती है।
(क) सूचनाओं और उपयुक्त सॉफ्टवेयर का प्रयोग कर सरकार सहजे ही खाद्य असुरक्षा की आशंका, वाले क्षेत्रों का समय रहते अनुमान लगा सकती है।
(ख) कृषि क्षेत्र में तो इसके विशेष योगदान हो सकते हैं। इस प्रौद्योगिकी द्वारा उदीयमान तकनीकों, कीमतों, मौसम तथा विभिन्न फसलों के लिए मृदा की दशाओं की उपयुक्त जानकारी का प्रसारण हो सकता है।
(ग) इसमें ग्रामीण क्षेत्रों में बड़े स्तर पर रोजगार के अवसर उत्पन्न करने की संभावना भी है।
(घ) इसका उद्देश्य भारत के प्रत्येक गाँव को एक ज्ञान केंद्र बनाना है।
प्र.15. जैविक कृषि क्या है? यह धारणीय विकास को किस प्रकार बढ़ावा देती है?
उत्तर : जैविक कृषि का अर्थः जैविक कृषि प्राकृतिक रूप से खाद्यान्न उगाने की प्रक्रिया है। यह विधि रासायनिक उर्वरक और विषजन्य कीटनाशकों के प्रयोग की अवहेलना करती है।
धारणीय विकास का अर्थः यह वह विकास है जो वर्तमान पीढ़ी के विकास के लिए भावी पीढ़ी की गुणवत्ता को प्रभावित नहीं करता। यह संसाधनों के प्रयोग को निषेध नहीं करता परंतु उनके उपयोग को इस तरह प्रतिबंधित करने का लक्ष्य रखता है कि वे भविष्य पीढ़ी के लिए बचे रहें।
जैविक कृषि तथा धारणीय विकास के अर्थ से यह स्पष्ट है कि यदि जैविक कृषि किसी प्रकार के रासायनिक उर्वरक, विषजन्य कीटनाशक आदि का प्रयोग नहीं कर रही तो यह भूमि क्षरण में योगदान नहीं करेगी। यह महँगे कृषि आदानों जैसे संकर बीज, रासायनिक उर्वरक, कीटनाशकों आदि को स्थानीय स्तर पर उत्पादित जैविक आदान विकल्पों से प्रतिस्थापित करते हैं। यदि भूमि का क्षरण नहीं हो रहा तो यह एक पर्यावण अनुकूल कृषि विधि है। अतः यह धारणीय विकास को बढ़ावा देती है।
प्र.16. जैविक कृषि के लाभ और सीमाएँ स्पष्ट करें।
उत्तर : लाभः
(क) जैविक कृषि महँगे आगतों जैसे संकर बीजों, रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों आदि के स्थान पर स्थानीय रूप से बने जैविक आगतों के प्रयोग पर निर्भर होती है।
(ख) ये आगते सस्ती होती हैं और इसके कारण इन पर निवेश से प्रतिफल अधिक मिलता है।
(ग) विश्व बाजारों में जैविक कृषि उत्पादों की बढ़ती हुई माँग के कारण इनके निर्यात से भी अच्छी आय हो सकती है।
(घ) जैविक कृषि हमें परंपरागत कृषि की तुलना में अधिक स्वास्थ्यकर भोजन उपलब्ध कराती है।
(ङ) ये उत्पाद पर्यावरण की दृष्टि से धारणीय विधियों द्वारा उत्पादित होते हैं।
(च) यह छोटे किसानों के लिए अधिक उपयुक्त हैं जो महँगे कीटनाशक, उर्वरक तथा अन्य आगतों का खर्च नहीं उठा सकते।
सीमाएँ:
(क) प्रारंभिक वर्षों में जैविक कृषि की लागत रासायनिक कृषि से उच्च रहती है।
(ख) जैविक कृषि की लोकप्रियता के लिए नई विधियों का प्रयोग करने में किसानों की इच्छाशक्ति और जागरूकता जगाना आवश्यक है।
(ग) इन उत्पादों के लिए अलग से कोई उचित आधारिक संरचना एवं विपणन सुविधाओं की कमी है। जैविक कृषि के लिए एक उपयुक्त कृषि नीति अपनाई जानी चाहिए।
(घ) प्रारंभिक वर्षों में जैविक कृषि से उत्पादन, रासायनिक कृषि से उत्पादकता से कम होता है। अत: बहुत बड़े स्तर पर छोटे और सीमांत किसानों के लिए इसे अपनाना कठिन होता है।
(ङ) बे मौसमी फसलों का जैविक कृषि में उत्पादन बहुत सीमित होता है।
(च) जैविक रूप से उत्पादित खाद्य पदार्थ महँगे होते हैं। अत: भारत जैसे गरीब देश इसका वहन नहीं कर सकता।
प्र.17. जैविक कृषि का प्रयोग करने वाले किसानों को प्रारंभिक वर्षों में किन समस्याओं का सामना करना पड़ता है?
उत्तर : जैविक कृषि का प्रयोग करने वाले किसानों को प्रारंभिक वर्षों में निम्नलिखित समस्याओं का सामना करना पड़ता है
(क) प्रारंभिक वर्षों में जैविक कृषि का उत्पादन रासायनिक कृषि से कम होता है, अत: बहुत बड़े स्तर पर छोटे और सीमांत किसानों के लिए इसे अपनाना कठिन होता है।
(ख) यह प्रारंभिक वर्षों में उपभोक्ताओं में भी कम प्रचलित होता है। कोई विपणन सुविधाएँ भी उपलब्ध नहीं होती।
(घ) जैविक उत्पादों की रासायनिक उत्पादन की तुलना में जल्दी खराब होने की संभावना रहती है। बे मौसमी फसलों का जैविक कृषि में उत्पादन बहुत सीमित होता है।